जैन धर्म |
जैन धर्म के संस्थापक ऋषभदेव (आदिनाथ) को माना जाता है। विष्णु पुराण एवं भगवत पुराण मे ऋषभ देव को नारायण का अवतार माना जाता है।
जैन धर्म के 23वे तीर्थकर पाशर्व नाथा थे। यह बनारस के राजा अश्वशेन के पुत्र थे। इनके शिष्यों को निर्गन्थ कहा जाता था। जिसका अर्थ “बंधन रहित” होता है
84 दिन के कठोर तप के बाद पशर्व नाथ को संबेद पर्वत पर ज्ञान की प्राप्ति हुई।
जैन धर्म के वास्तविक संस्थापक महावीर स्वामी को माना जाता है। क्यूकी सर्वाधिक प्रचार- प्रसार इनहि के काल मे हुआ था।
महावीर स्वामी का जन्म 540 ई0 पू0 मे वैशाली के निकट कुंडग्राम मे हुआ था। इनके पिता का नाम सिद्धार्थ और माता का नाम त्रिशला था।
इनके पिता जात्रिक क्षत्रिय संघ के प्रधान थे। और माता लिक्षविक गणराज्य के शासक चेटक की बहन थी।
महावीर स्वामी की पत्नी का नाम यशोदा था। और पुत्री का नाम “अनुजा या प्रियदर्शना था” एवं इनके दामाद का नाम जमाली था।
महावीर का बचपन मे नाम वर्धमान रखा गया था जिसका अर्थ होता है “तेजी से आगे बढ्न”
जैन धर्म मे प्रथम भिक्षु महिला चम्पा थी।
महावीर 30 वर्ष की अवस्था मे माता- पिता की मृत्यु के बाद अपने बड़े भाई नंदिवर्धन से आज्ञा लेकर गृह त्याग दिए थे।
महावीर स्वामी को 12 वर्ष की कठोर टपश्या के बाद जुंभिक ग्राम के ऋजुपालिका नदी के तट पर एक शाल वृक्ष के नीचे सरबोच ज्ञान की प्राप्ति हुई।
इसी ज्ञान को जैन धर्म मे कैवल्य कहा जाता है। और महावीर स्वामी को केवलीन कहा जाता है।
माया , मोह लोभ , इष्या, जैसे सभी भावनाओं पर विजय प्रपट कर लेने अर्थात इंद्रियों पर विजय प्रपट कर लेने के कारण इन्हे “जिन” भी कहा जाता है।
अपने उद्येश्य के प्रचार- प्रसार के दौरान किसी गाँव मे एक दिन और शहर मे पाँच दिन रुकते थे।
महावीर स्वामी की मृत्यु 468 ईस्वी पूर्व पावापुरी के मल राज्य सृष्टिपाल के महल मे होगया था।
महावीर स्वामी ने अपना पहला उपदेश राजगीर के बीपुलाचल पर्वत पर दिए थे। जहां आज भी एक भाव्य आकर्षक मंदिर बना हुआ है।
विपुलाचल पर्वत राजगीर | Vipulachal |
महावीर स्वामी ने भी गौतम बुद्ध के तरह संसार को दुखमय माना था। मानुषी की इच्छा असीमित होती है और यही दुख का मूल कारण है।
महात्मा बुद्ध के तरह महावीर स्वामी ने भी ईस्वर की सतीत्व को अस्वीकार करते हुए यह कहा की इस संसार का निर्माण ईस्वर ने नहीं किया है। वलकी यह एक वास्तविक सत्य पर आधारित है।
मनुष्य अपना अच्छा या बुरा सभी कर्म फल इसी पृथ्वी पर भुगतता है।
महावीर जात- पात , छुआ –छूत तथा अंधविश्वास का बिरोध करते थे। महावीर स्वामी पुनर्जन्म एवं कर्म के सिद्धयांत मे विश्वास करते थे।
महावीर स्वामी ने सांसारि इच्छा या बंधन से छुटकारा को हिन निर्वाण कहा था। जिसे पाने के तीन निम्न उपाय बताए थे। जिसे जैन धर्म मे त्रिरत्न भी कहा जाता है।
1 सम्यक दर्शन
2 सम्यक ज्ञान
3 सम्यक आचरण
जैन धर्म मे इन तीनों बातों की पालन करने के लिए पाँच उपाय बताए हैं। जिसे पाँच अनुब्रत या पाँच महाव्रत कहा गया है।
1 अहिंसा
3 सत्य बचन
4 अस्तेय
5 अपरिग्रह
6 ब्रह्मचारी
इन पंचो मे प्रथम चार का प्रतिपादन पशर्वनाथ ने किया था। एवं पंचमा शब्द महावीर स्वामी ने जोड़ा था।
महावीर स्वामी ने अपने ही जीवन मे एक संघ की स्थापना किए जिसमे दो प्रमुख अनुयायी थे। ये सभी अपने समूह का प्रधान गांधार कहलाते थे। (अनुयायी मतलब धर्म को मानने वाला महावीर का शिष्य)
महावीर के जीवन काल मे 10 गांधार की मृत्यु होगाई थी। एवं महावीर की मृत्यु के बाद सुधरमन संघ का अध्यक्ष बना।
चंद्रगुप्ता मौर्य के शासन काल मे लगभग 300 ईस्वी पूर्व या 298 ईस्वी पूर्व मे जैन विद्यमानों का एक सम्मेलन पटलिपुत्र (पटना) मे हुआ था।
जिसे प्रथम जैन संगति कहा जाता है। इस सम्मेलन मे जैन धर्म को दो भागो मे बाँट दिया गया।
1 दिगंबर जैन
2 स्वेतांबर जैन
सन् 513 ई0 मे दूसरा जैन संगति गुजरात के बल्लभी नमक स्थान मे हुआ था। इसी सम्मेलन मे जैन ग्रंथ एवं जैन सिध्यांतों का अंतिम रूप दिया गया। इस संगति का अध्यक्षता देवर्धीक्षामा श्रवण ने किया था।
स्वेतांबर- इसकी स्थापना स्थूलभद्र ने किया था। स्वेतांबर मानने बाले लोग स्वेत वस्त्र अर्थात सफ़ेद वस्त्र पहनते थे।
इसमे इस्त्रीयों को भी मोक्ष प्राप्त करने का अधिकार था। इसके अनुयायी ज्ञान प्राप्ति के बाद भोजन अन्न ग्रहण नहीं करते थे।
दिगंबर- इसकी स्थापना भद्रबाहु ने किया था। और दिगंबर के अनुयायी पूर्णतः निर्वस्त्र रहते थे। इसमे स्त्रियॉं को नहीं एंट्री होती थी और ना ही स्त्रियॉं को मोक्ष प्राप्ति का अधिकार था। पर आदर्श सन्यासी जो होते थे वो अन्न ग्रहण नहीं करते थे। केवल फल इत्यादि पे जीवन जीते थे।
मगध के शासक आजात शत्रु एवं उद्द्यन ने जैन धर्म की प्रचार –प्रसार मे अपना योगदान दिया।
दक्षिण भारत मे जैन धर्म के प्रचार –प्रसार मे चन्द्रगुप्त मौर्य ने सबसे ज्यादा भूमिका निभाई। चन्द्रगुप्त ने भद्रबाहु से शिक्षा ग्रहण किया था। और इसकी मृत्यु कर्नाटक स्थित श्रवणवेलगोला मे होगया था।
कलिंग का राजा खारवेल जैन धर्म का संरक्षक था। और कुषाण काल मे मथुरा जैन धर्म का सबसे बड़ा केंद्र था।
जैन धर्म की सबसे प्रसिद्ध मूर्ति मे मैसूर के श्रवणवेलगोला मे गोमतेश्वर की मूर्ति है। इसकी ऊंचाई 6.5 फिट है। इस मूर्ति का निर्माण गंग नरेश का मंत्री चामुंडा राम ने करवाया था।
राजस्थान के माउंट आबू मे दिलवारा जैन मंदिर भी बहुत प्रसिद्ध है।
कल्पसूत्र जैन धर्म की प्रमुख पुस्तकों मे से है जिसे भद्रवाहु ने लिखा है। और जैन साहित्य को आदम कहा जाता है। और जैन मंदिर को बसादी कहते हैं।
जैन धर्म मे अभ्रन्स भाषा का पहला व्याकरण हेमचन्द्र ने तैयार किया था। जैन धर्म के सदाशयों को चार भागो मे बांटा गया था।
1 भिक्षु
2 भिक्षुणी
3 श्रावक
4 श्रविका
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